सोमवार, 12 अप्रैल 2010

' होम इज़ देयर , वेयर द टीवी इज़.'

पिछले दिनों अपने एक मित्र से, जो की मेरे गृहनगर में रहता है, और फोन के माध्यम से अक्सर संपर्क में होता है, चैट पे मुलाकात हो गयी. ये मित्र मेरे बचपन का मित्रों की श्रेणी में आता है, और जिससे बात कर के अक्सर अच्छा ही महसूस होता है. इधर उधर की बात के पश्चात बात ब्लॉग पे आई. ये मित्र भी ब्लॉग पढने में रूचि रखता है, और कुछ दिनों पहले मैंने एक फेवरेट लिंक उसे दी थी. बात बात में हमारी चैट लेखन का तरीका और शब्दों का प्रयोग से होती हुई ब्लॉग के उस विषय पर आ गयी जिस पर वह लेख लिखा गया था. वो ब्लॉग लेखक ने अपने पुराने दिनों की याद करते हुए बहुत अच्छे ढंग से लिखा था, स्वाभाविक था के हम nostalgic हो रहे थे.
अपने जन्मस्थान से प्रेम कोई दूसरे ग्रह की चीज़ नहीं है, ये तो लगभग उन सभी लोगो में पाई जाती है जो अपना घर छोड़ के बाहर निकलते हैं, बस भावना की तीव्रता में थोडा अंतर हो सकता है. कोई कम तो कोई ज्यादा अपने घर को 'मिस' करता है. कॉलेज के दिनों में एक वाक्य मैं अक्सर प्रयोग किया करता था ' होम इस देयर, वेयर द टीवी इस.' घर छोड़ने के बाद चीज़े इतनी बदल जाएगी, तब इसका अनुमान लगाना मुश्किल था. घर से बाहर निकल कर अब मैं अपने घर, माता-पिता और जगह को बेहद मिस करने लगा. टाइमिंग के मामले में किस्मत ने कही साथ नहीं दिया, पर इस बार टाइमिंग अचूक थी.मेरे कॉलेज पास आउट की टाइमिंग दशक की शुरुआती आईटी में वैश्विक मंदी से मेल खा रही थी. वाकई ये वो दौर था जिसे लोग 'स्ट्रगल' का दौर कहते हैं, और यकीन मानिये जब घर भर की आशाएँ आपके ऊपर हों, और आप मानसिक रूप से निराश हों तो बिना किसी सफलता १-१ दिन कितना मुश्किल हों जाता है इस सत्य से साक्षात्कार का वो अनुभव आपके जीवन भर के लिए होता है. नैराश्य को बढ़ने में उत्प्रेरक आपके साथी मित्रों का नौकरी पाना, लोगों की कडवी बातें और कभी कभी आपके विश्वास के साथ धोखा होते हैं. क्या मैं इतना बुरा हूँ? पढने में तो शुरू से अच्छा था तो फिर ये मेरे साथ क्यों हो रहा है? मैं सोचता, और सोचता जाता. गले से कौर नीचे न उतरता. फ़ोन से घर पर बात करने पर सब दिलासा देते, और विश्वास जताते के सब अच्छा होगा . रात भर सोने को ये काफी होता. शायद ये मेरे पिछले जन्म के पुण्य कर्म ही थे जो ऐसे घर में जन्म हुआ.
कठिन समय का प्रभाव आपके अवचेतन मन पर न हो ये संभव नहीं है, स्थितियां अधिक विषम हो तो ये प्रभाव जीवन पर आने लगता है. ये सब लगभग १ वर्ष झेला। फिर मैंने जगह बदली, पुराने मित्र फिर मिले, साथ मिला, और थोडा मानसिक संबल भी. सोचा हे ईश्वर अब किस्मत भी बदल दो. समय बदल रहा था. शुरुआत हुई, लेकिन जो भुगता था , उसे भूल पाना आसन न था. उसने मेरे आत्मविश्वास को हिला दिया था. पहली नौकरी बहुत अच्छी तो न थी, लेकिन कॉर्पोरेट जगत में पहले कदम के रूप में देखूं तो इस हिसाब से ठीक ही थी, पर सबसे बढ़ कर मेरी अगली नौकरी का आधार स्तम्भ थी. बहुत सीखा, सब नया नया देखा, और देख कर अचंभित हुआ. ६ माह बाद ईश्वर ने सुन ही ली, बड़ी कंपनी, अच्छी टेक्नोलोजी, बेहतर सैलरी. सोचा किसको सबसे ज्यादा धन्यवाद दूं, माता पिता, ईश्वर, मेहनत, भाग्य किसको? खूब सोचा विचारा तो पाया के ये तो माता-पिता ही हैं, जो सबसे बड़े अधिकारी हैं, हमारे लिए क्या कुछ नहीं करते, वो भी बिना बताये, बिना कुछ कहे. जबकि मेरे पास तो सदा फरमाईशें और शिकायतें ही रही. मैं मैं न होता यदि वो न होते, आज मैं जिस जगह हूँ, ये तो उनके पुण्य हैं. अब मेरा वाक्य बदल चुका था 'होम इस देयर, वेयर द परेंट्स आर'.

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